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मालाणी के लोक देवता रावल मल्लीनाथ जी

14वीं शताब्दी के सन्त शासक श्री रावल मल्लीनाथ जी जिन्होंने मालाणी क्षेत्र की स्थापना की। उनकी सन्त शिरोमणी राणी रुपादे जी व उनके समकालीन सन्त गुरु उगमसी भाटी, बालीनाथ, रावत रणसी, मेवाड़ से महाराणा कुम्भा, व उनकी राणी लीलर, सलण सीरजी, रामदेवजी, पाबूजी, हड़बूजी, जैसल-तोरल (कच्छ भुज) व अन्य सन्तों का लूणी नदी के तट पर मालाजाल में सन्त समागम किया था और उसी स्मृति में सात सौ वर्षों से आज दिन तक चैत्र मास में तिलवाड़ा गाव में मेला होता आ रहा है।

मल्लीनाथ जी ने मंडोर, मेवाड़, आबू तथा सिंध के मध्य कई युद्ध किये और मुगलों के 13 दलों को हरा दिया। मल्लीनाथ जी की शूरवीरता और युद्ध कौशल के सामने वो टिक नहीं सके।

 इस प्रसंग में मारवाड़ में ये दोहा प्रचलित है –

‘तेरा तुंगा भांगिया, मालै सलखाणीह‘‘।

अर्थात राव सलखा के बेटे ‘‘माला‘‘ ने अपने अनूठे पराक्रम से मुगलों की फौज के तेरह दलों (तुंगा) को हरा दिया।

रावल मल्लीनाथ जी महान वीर और नीति प्रस्त शासक थे। उन्होंने न केवल राठौड़ो के राज्य का विस्तार किया बल्कि उसको मजबूती भी प्रदान कर राठौड़ो के प्रथम राज्य की स्थापना करी।

अपने आखिरी दिनों में साधुवृत्ति धारण करने के कारण रावल मल्लीनाथ जी को सिद्ध-पुरुष के रुप में आज भी मारवाड़ मालाणी में याद किया जाता है।

उनकी राणी रुपादे जी एक विलक्षण सन्त थी, जिन्होंने अपने पति रावल मल्लीनाथ जी का हृदय परिवर्तन कर सांसारिक प्रवृति मार्ग से आध्यात्मिक निवृति मार्ग की ओर प्रवृत कर मोक्ष (अमरापुर) का द्वार दिखलाया।

यह आध्यात्मिक उत्थान व उद्धार का कार्य पति रावल मल्लीनाथ जी से शुरु कर जन-जन तक बिना जाति व धर्म भेद के ले जाना, उस अधमय मध्यकाल में एक अति साहसी व क्रांतिकारी कदम था। विशेषकर एक राजघराने की स्त्री के लिए। राजमहलों से निकलकर आम जन के कल्याण के लिये बिना जाति, लिंग, धर्म भेद के स्वच्छन्द विचरण कर भक्ति, मुक्ति, ज्ञान का निर्भीकता से प्रचार करना एक अत्यन्त साहसी व विलक्षण प्रयास था। सामाजिक समरसता का उन्होंने 700 वर्ष पूर्व पथ प्रशस्त किया।

उनके गुरु भाई मेघधारु जी, जो कि मेघवाल समाज से थे, का संग कर उन्होंने जातिवाद व अस्पृश्यता का अपने व्यवहार से करारा जवाब दिया। श्री मेघधारु जी के घर जमा (जागरण) कराया (उनकी जीवित समाधी मेवानगर में आज भी विद्यमान हैं)। राणी रुपादे ने सगुण व निर्गुण दोनों पंथो को स्वीकार व सत्य के पथ को सबसे उतम पंथ माना राणी रुपादे जी की बाणी व भजनों (काव्य) में गीता के गूढ़ ज्ञान व सरल भक्ति का समावेश हैं। मीरा की भाति अपने इष्ट के मिलन की व्याकुलता के साथ दर्द है, साथ ही भौतिक जगत् और ऐन्द्रीय सुख व राजसी वैभव से वैराग्य व कबीर, दादू व अन्य निराकार भक्ति मार्गी सन्तों के सम्मान निराकार ब्रह्म की आराधना व ज्ञान मार्ग का अनुसरण करने की जिज्ञासा भी झलकती है।

राणी रुपादे जी के सम्पर्क में आने के बाद उनमें परिवर्तन आया और उनके गुरु उगमसी भाटी से दीक्षा लेने के बाद उनके और उनके पंथ में जो शामिल हुए, जो कि एक ‘‘ झीणा‘‘ अथवा अत्यन्त कठिन मार्ग था। अतः सम्भवतः यह ज्ञान योग का मार्ग था, जिसमें भक्ति योग भी मिला हुआ था। नदियों के समान सब मार्ग व पंथ उस परब्रह्म (निराकार) परमेश्वर या ‘‘श्याम‘‘ (साकार) की ओर ‘अमरापुर‘ (स्वर्ग) ले जाते हैं।

संस्थान के बारे में

श्री रावल मल्लीनाथ श्री राणी रुपादे संस्थान मालाजाल, तिलवाड़ा (बाड़मेर) श्री रावल मल्लीनाथ जी के मन्दिरों, पुरानी छतरियों, पर्यावरण, (ओरण, गोचर) संरक्षण व उनके उपदेशानुसार आदर्श मानव समाज की स्थापना व उसके सर्वांगीण विकास का सार्वजनिक न्यास है।

श्री रावल मल्लीनाथ श्री राणी रुपादे जी के मन्दिर राजस्थान की पचपदरा तहसील के तिलवाड़ा गाव में लूणी नदी के तट पर आये हुए है। बालोतरा रेल्वे स्टेशन व तिलवाड़ा स्टेशन से यहां पर पहुचा जा सकता है। यहा पर श्रद्धालुओ के लिए विभिन्न सुविधायें जैसे कि शुद्ध जल, पार्किग आदि अन्य सुविधाएं उपलब्ध है। यह एक धार्मिक स्थान है जहां सभी धर्मो को एक समान माना जाता है तथा विश्वास कायम होता है, विश्वास और धैर्य की शक्ति सबसे महत्वपूर्ण है और मिन्नतें फलीभूत होती है, व शान्ति की अनुभूति होती है और असीम आनंद व चिरस्थायी संतोष व्याप्त है। ऐसी जगह की महिमा दया की सच्ची देवी श्री राणी रुपादे जी से संबंधित है, जो सभी भक्तों पर समद्रष्टि से कृपा बरसाती हैं।

श्रद्धालुओं की श्रद्धा से इस गाव को एक पवित्र तीर्थस्थल बना दिया है। उनके मन्दिर एक ऐसी जगह है जहां आज भी श्री रावल मल्लीनाथ जी व श्री राणी रुपादे जी के भक्त बिना भेदभाव समदृष्टि, एकात्म भाव को स्वीकार कर आशा व विश्वास के साथ आते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर वापस असीम शांति के साथ उनका आर्शीवाद लेकर लौटते है।